hindisamay head


अ+ अ-

कविता

उसका विश्राम

रति सक्सेना


अकसर उसकी थकान विश्राम पाती
उसके अपने पहले घर में
जो अब मेरी देह में खाली पड़ा है

वह घुटने टेकती, धीमे से सिर को
इस घर की दीवार पर रख
कान रख सुनती बुदबुद में छिपी लय
अंधी रोशनी में सुकून के कुछ पल

हर बार उसका अपने से संवाद
मुझे जितना उससे जोड़ता
उतना ही छिटक कर दूर भी कर देता
इतना कि मेरी देह के बीचोंबीच
रखा उसका अपना घर मेरे
विस्मय बन जाता

लंबे वक्त से मैं उसके खाली घर को
वक्त की तरह ढोती हुई
उसके संवाद से अपने को बाहर पाती हूँ

और शायद इसीलिये अपने पेट को
इतनी वर्जिश के बावजूद कम नहीं कर पाती

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में रति सक्सेना की रचनाएँ



अनुवाद